| يا ناعس الطرف نومي كيف تمنعه | | |
| جفني تمنى الكرى بالطيف يجمعه | |
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| وأنت بالهجر يا غدّار تولعه | |
| ما ضر لو زار أجفاني ولي رمق | | |
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| إن أنت لم تتعطف قلت لي رشا | | |
| يغار من طيفه السارى فيمنعه | |
| يشكو إليك ويشكو منك منتحب | | |
| جرى دما من مغاني السعد مدمعه | |
| إن جنَّه الليل أدمت خدّه يده | | |
| وأنهدّ من سورة الأشجان مضجعه | |
| أبكي الصِباء رخيًّا من أعنته | | |
| جرى بنا لمدى اللذات يقطعه | |
| صحا الفؤاد على آثار كبوته | | |
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| إذا تمثلته في اللب طار له | | |
| ورفرف القلب حتى خِفت يتبعه | |
| أقول للنفس عنه لا أغالطها | | |
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| إذا صِبا المرء ولى غير مرتجع | | |
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| وموضع المجد من بُردَىَّ موضعه | |
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| والمجد يجمل في الفتيان موقعه | |
| في الغرب مغتربا والشرق ملتفت | | |
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| كن كيف شئت وخذ للعلم حفلته | | |
| فما وجدت كعلم المرء ينفعه | |
| والشعر بالعلم والعرفان مقترنا | | |
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